Hindi Typing Test - बृहस्पतिवार व्रत कथा
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श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा
बृहस्पतिवार को जो भी स्त्रीपुरूष व्रत करे उनको चाहिए कि वह दिन में एक ही समय भोजन करे क्योंकि बृहस्पतेश्वर भगवान का इस दिन पूजन होता है। भोजन पीले चने की दाल आदि का करें परन्तु नमक नहीं खावें और पीले वस्त्र पहनें। पीले ही फलों का प्रयोग कर पीले चन्दन से पूजन करें। पूजन के बाद प्रेमपूर्वक गुरू महाराज की कथा सुननी चाहिए।
इस व्रत को करने से मन की इच्छायें पूरी होती है और बृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं, तथा धन, पुत्र, विद्या और मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है। परिवार को सुख शांति मिलती है। इसलिए यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अति फलदायक सब स्त्री व पुरूषों के लिए है।
इस व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय तन, मन, धर्म और वचन से शुद्ध होकर जो इच्छा हो बृहस्पति देव की प्रार्थना करनी चाहिए। उनकी इच्छाओं को बृहस्पति देव अवश्य पूर्ण करते हैं, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।
श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा
भारतवर्ष में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा प्रतापी और दानी था, नित्य गरीबों और ब्राह्मणों की सहायता करता था। यह बात उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी। वह न गरीबों को दान देती, न ही भगवान का पूजन करती थी, और राजा को भी ऐसा करने से मना किया करती थी।
एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए हुए थे, तो रानी महल में अकेली थी। उसी समय बृहस्पति देव साधु के वेष में राजा के महल में भिक्षा के लिए गए और भिक्षा माँगी। रानी ने भिक्षा देने से इंकार कर दिया और कहा, "साधु महाराज, मैं तो दान पुण्य से तंग आ गई हूँ। मेरा पति सारा धन लुटाता रहता है। मेरी इच्छा है कि हमारा धन नष्ट हो जाए, फिर न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।"
साधु ने कहा, "देवी, तुम तो बड़ी विचित्र हो। धन और संतान तो सभी चाहते हैं। पुत्र और लक्ष्मी तो पापी के घर भी होनी चाहिए। यदि तुम्हारे पास अधिक धन है तो भूखों को भोजन दो, प्यासों के लिए प्याघ बनवाओ, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं खुलवाओ। जो निर्धन अपनी कुंवारी कन्याओं का विवाह नहीं कर सकते, उनका विवाह करवाओ। ऐसे और कई काम हैं जिनके करने से तुम्हारा यज्ञ लोक और परलोक में फलित होगा।"
परंतु रानी पर उपदेश का कोई प्रभाव न पड़ा। वह बोली, "महाराज, आप मुझे कुछ न समझाएं। मैं ऐसा धन नहीं चाहती जो हर जगह भागती फिरूं।"
साधु ने उत्तर दिया, "यदि तुम ऐसा ही चाहती हो, तो तथास्तु! तुम ऐसा करना कि बृहस्पतिवार को घर लीपकर पीली मिट्टी से अपना सिर धोकर स्नान करना, भट्टी चढ़ाकर कपड़े धोना। ऐसा करने से तुम्हारा सारा धन नष्ट हो जाएगा।"
इतना कहकर वह साधु महाराज वहाँ से अदृश्य हो गए। जैसे उन्होंने कहा था, रानी ने वैसा ही किया। छह बृहस्पतिवार बीते ही थे कि उसका समस्त धन नष्ट हो गया और भोजन के लिए दोनों तरसने लगे। सांसारिक भोगों से दुःखी रहने लगे। तब वह राजा रानी से कहने लगा, "तुम यहाँ पर रहो, मैं दूसरे देश में जा रहा हूँ, क्योंकि यहाँ पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं और कोई कार्य भी नहीं कर सकता।"
राजा परदेश चला गया, जंगल में लकड़ी काटने लगा और उसे शहर में बेचकर जीवन व्यतीत करने लगा।
श्री बृहस्पति कथा - लकड़हारे की कथा
एक दिन दुःखी होकर जंगल में एक पेड़ के नीचे निश्चित रूप से आसन जमाकर बैठ गया। वह अपनी दशा को याद करके व्याकुल होने लगा। बृहस्पतिवार का दिन था। एकाएक उसने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुआ, वह साधु के भेष में स्वयं बृहस्पतिदेव थे। लकड़हारे के सामने आकर बोले, "हे लकड़हारे! इस सुनसान जंगल में तू चिंता मग्न क्यों बैठा है?"
लकड़हारे ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उत्तर दिया, "महात्मा जी! आप सब कुछ जानते हैं, मैं क्या कहूँ?" यह कहकर वह रोने लगा और साधु को अपनी आत्मकथा सुनाई। महात्मा जी ने कहा, "तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति के दिन वीर भगवान का निरादर किया है, जिसके कारण रुष्ट होकर तुम्हारी यह दशा कर दी। अब तुम चिंता को दूर करके मेरे कहने पर चलो तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जाएंगे और भगवान पहले से भी अधिक संपत्ति देंगे।"
"तुम बृहस्पति के दिन पाठ किया करो। दो पैसे के चने मंगवाकर उसका प्रसाद बनाओ और शुद्ध जल से लोटे में घोलकर अमृत तैयार करो। कथा के पश्चात अपने सारे परिवार और सुनने वाले प्रेमियों में अमृत व प्रसाद बांटकर तुम भी ग्रहण किया करो। ऐसा करने से भगवान तुम्हारी सब मनोकामनाएं पूरी करेंगे।"
साधु के ऐेसे वचन सुनकर लकड़हारा बोला, "हे प्रभो! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता जिससे भोजन के बाद कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं जिससे उसकी खबर मंगा सकूं।"
साधु ने कहा, "हे लकड़हारे! तुम किसी बात की चिंता मत करो। बृहस्पति के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर को जाओ। तुम्हें रोजाना से दुगना धन प्राप्त होगा, जिससे तुम भलीभांति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पति देव की पूजा का सामान भी आ जाएगा।"
इतना कहकर साधु अंतर्ध्यान हो गए। धीरे-धीरे समय व्यतीत होने लगा और फिर वही बृहस्पतिवार का दिन आया। लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी शहर में बेचने गया। उसे उस दिन और दिन से अधिक पैसा मिला। राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर गुरूवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी कलेश दूर हो गए।
परन्तु जब दुबारा बृहस्पतिवार गुरूवार आया, तो वह व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए। उस दिन से उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा शहर में यह घोषणा कर दी कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन न बनाए, न आग जलाए, समस्त जनता मेरे यहाँ भोजन करने आए। इस आज्ञा को जो न मानेगा, उसके लिए फांसी की सजा दी जाएगी।
इस तरह की घोषणा सम्पूर्ण नगर में करवा दी गई। राजा की आज्ञानुसार शहर के सभी लोग भोजन करने गए। लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुँचा, इसलिए राजा उसे अपने साथ घर ले गया और भोजन करा रहे थे। तभी रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी, जिस पर उसका हार लटका हुआ था। वह हार वहाँ दिखाई न दिया। रानी ने निश्चित किया कि मेरा हार इस मनुष्य ने चुरा लिया है।
उसी समय पुलिस को बुलाकर उसे जेल में डाल दिया। जब लकड़हारा जेल में पड़ा और बहुत दुखी होकर विचार करने लगा, तो न जाने कौन से पूर्व जन्म के कर्म से उसे यह दुःख प्राप्त हुआ। उसी साधु को याद करने लगा जो जंगल में मिला था। उसी समय तत्काल बृहस्पति देव साधु के रूप में प्रकट हुए और उसकी दशा को देखकर कहने लगे, "अरे मूर्ख! तूने बृहस्पति देव की कथा नहीं की, इस कारण तुझे दुःख प्राप्त हुआ है। अब चिंता मत कर। बृहस्पति के दिन जेल के दरवाजे पर चार पैसे मिलेंगे। उनसे तू बृहस्पति देव की पूजा करना। तेरे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे।"
बृहस्पति के रोज उसे चार पैसे मिले। लकड़हारे ने कथा की। उसी रात्रि को बृहस्पति देव ने उस नगर के राजा के स्वप्न में कहा, "हे राजा! तुमने जिस आदमी को जेल में बंद किया है, वह निर्दोष है। वह राजा है, उसे छोड़ देना। रानी का हार उसी खूंटी पर लटका है। अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे राज्य को नष्ट कर दूँगा।"
इस तरह रात्रि के स्वप्न को देखकर राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी। लकड़हारे को योग्य सुंदर वस्त्राभूषण देकर विदा किया और बृहस्पति देव की आज्ञानुसार लकड़हारा अपने नगर को चल दिया। राजा ने तब अपने नगर के निकट पहुंचते हुए देखा कि नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत सी धर्मशालाएं, मंदिर आदि बन गए हैं।
राजा और बृहस्पति देव की कथा
राजा ने पूछा, "यह किसका बाग और धर्मशालाएं हैं?" तब नगर के सब लोग कहने लगे, "यह सब रानी और बांदी का है।" राजा को आघ्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं, तो बांदी से कहा, "हे दासी! देख, राजा हमें कितनी बुरी हालत में छोड़ गए थे। हमारी ऐसी हालत देखकर वे लौट न जाएं, इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा।"
आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई। राजा आए तो उन्हें अपने साथ ले आई। तब राजा ने घेर करके अपनी रानी से पूछा, "यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ?" रानी ने कहा, "हमें यह सब धन बृहस्पति देव के इस व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है।"
राजा ने निश्चय किया कि सात रोज़ बाद तो सभी बृहस्पति देव का पूजन करते हैं, परंतु मैं रोज़ाना दिन में तीन बार कथा कहा करूंगा और रोज़ व्रत किया करूंगा। अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती और दिन में तीन बार कथा कहता।
एक रोज़ राजा ने विचार किया, "चलो, अपनी बहन के घर हो आएं।" इस तरह निश्चय करके राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के घर को चलने लगा। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं। उन्हें रोककर राजा कहने लगा, "अरे भाइयों! मेरी बृहस्पति देव की कथा सुन लो।" वे बोले, "लो, हमारा आदमी मर गया है, इसको अपनी कहानी की पड़ी है।"
लेकिन कुछ आदमी बोले, "अच्छा कहो, हम तुम्हारी कहानी भी सुनेंगे।" राजा ने दाल निकाली और कथा आधी हुई कि मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके वह मनुष्य उठकर खड़ा हो गया।
आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा ने उसे देखा और उससे बोला, "अरे भइया! तुम मेरी बृहस्पति की कथा सुन लो।" किसान बोला, "जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा, तब तक चार हरैया जोत लूंगा। जा, अपनी कथा किसी और को सुनाना।" इस तरह राजा आगे चलने लगा।
राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर पड़े और उसके पेट में जोर से दर्द होने लगा। उस समय उसकी मां रोटी लेकर आई। उसने जब यह देखा, तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा और बेटे ने सभी कह दिया। तो बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और बोली, "मैं तेरी कहानी सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर चलकर ही कहना।" राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही। इसके सुनते ही वह बैल उठ खड़े हुए और किसान के पेट का दर्द बंद हो गया।
राजा अपनी बहन के घर पहुँच गया। बहन ने भाई की खूब मेहमाननवाजी की। दूसरे रोज़ प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से कहा, "क्या ऐसा मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो? तो मेरी बृहस्पति देव की कथा सुन लें।" बहिन बोली, "हे भैया! यह देश ऐसा ही है, पहले लोग भोजन करते हैं, बाद में अन्य काम करते हैं। अगर कोई पड़ोस में हो, तो देख आ।"
वह ऐसा कहकर देखने चली। परन्तु उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन न किया हो, अतः वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था। उसे मालूम हुआ कि उनके घर में तीन रोज़ से किसी ने भोजन नहीं किया। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा। वह तैयार हो गया। राजा ने जाकर बृहस्पति की कथा कही, जिसे सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया।
अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी और उसकी कथा का प्रभाव सब जगह दिखाई देने लगा।
राजा, रानी और बृहस्पति देव की कथा
एक रोज़ राजा ने अपनी बहन से कहा, "हे बहन! हम अपने घर को जाएंगे, तुम भी तैयार हो जाओ।" राजा की बहन ने अपनी सास से कहा, तो सास ने कहा, "जा, चली जा, परंतु अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई औलाद नहीं है।" बहन ने अपने भाई से कहा, "हे भैया! मैं तो चलूंगी, कोई बालक नहीं जाएगा।"
राजा बोला, "जब कोई नहीं चलेगा, तब तुम क्या करोगी?" बड़े दुःखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा ने अपनी रानी से कहा, "हम निरवंशी राजा हैं, हमारा मुंह देखने का भी धर्म नहीं है और कुछ भोजन आदि नहीं किया।" रानी बोली, "हे प्रभो! बृहस्पति देव ने हमें सब कुछ दिया है, हमें औलाद भी अवश्य देंगे।"
उसी रात बृहस्पति देव राजा के स्वप्न में आकर कहने लगे, "हे राजा, उठो, सभी सोच त्याग दो, तेरी रानी गर्भवती है।" राजा की यह बात सुनकर बड़ी खुशी हुई, नवें महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ। तब राजा बोला, "हे रानी! स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, बिना कहे नहीं रह सकती। जब मेरी बहन आए तो तुम उससे कुछ नहीं कहना।"
रानी ने सुनकर हां कह दिया। जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना, तो वह खुशी से बधाई लेकर अपने भाई के घर आई। तभी रानी ने कहा, "घोड़ा चढ़कर तो नहीं आई, गधा चढ़ी आई।" राजा की बहन बोली, "भाभी, मैं इस प्रकार न कहती, तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती? बृहस्पति देव ऐसे ही हैं, जैसी किसी के मन में कामनाएं होती हैं, वे सभी को पूर्ण करते हैं।"
"जो सद्भावना पूर्वक बृहस्पति देव का व्रत करते हैं और कथा पढ़ते हैं या सुनते हैं, और दूसरों को सुनाते हैं, बृहस्पति देव उनकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। भगवान बृहस्पति देव उनकी सदैव रक्षा करते हैं। संसार में, यदि कोई भगवान का पूजन व्रत सच्चे हृदय से करता है, तो उसकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं, जैसी राजा और रानी ने उनकी कथा का गुणगान किया था।"
"तो, पूर्ण कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिए, हृदय से उसका मनन करते हुए जयकारा बोलना चाहिए।"
ब्रह्मण और कन्या की कथा
बृहस्पति देव की कथा प्राचीन काल में एक ब्राह्मण था जो बहुत निर्धन था, और उसकी कोई संतान नहीं थी। उसकी स्त्री बड़ी मलीनता के साथ रहती थी, वह स्नान नहीं करती थी, किसी देवता का पूजन नहीं करती थी। इसके कारण ब्राह्मण देवता बड़े दुःखी थे। वह बेचारे बहुत कुछ कहते, किंतु उसका कुछ परिणाम न निकला।
भगवान की कृपा से ब्राह्मण देवता की कन्या रूपी रत्न पैदा हुई। कन्या बड़ी होने पर, प्रातः स्नान करके विष्णु भगवान का जाप और बृहस्पतिवार का व्रत करने लगी। अपने पूजन-पाठ को समाप्त करके, पाठशाला जाती और अपनी मुट्ठी में जौ भरकर ले जाती, और पाठशाला से लौटते समय उसे बीनकर घर ले आती थी।
एक दिन वह बालिका सूप में उस सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी, तभी उसके पिता ने देख लिया और कहा, "हे बेटी! सोने के जौ के लिए सोने का सूप होना चाहिए।" दूसरे दिन बृहस्पतिवार था, तो उस कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पति देव से प्रार्थना की, "मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की है, तो मेरे लिए सोने का सूप दे दो।"
बृहस्पति देव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोज़ाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती जा रही थी, जब लौटते समय जौ बीन रही थी, तो बृहस्पति देव की कृपा से सोने का सूप मिला। उसने उसे घर ले आकर उसमें जौ साफ करने लगी, परंतु उसकी मां का वही हाल रहा।
एक दिन, कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी, उसी समय शहर का राजकुमार वहां से गुजर रहा था। उसने उस लड़की रूप को देखकर मोहित हो गया और अपने घर जाकर भोजन और जल त्याग कर उदास लेट गया।
राजकुमार और ब्राह्मणी की कथा
राजा को जब इस बात का पता चला, तो वह अपने प्रधानमंत्री के साथ उस लड़के के पास गए और बोले, "हे बेटा! तुम्हें किस बात का कष्ट है? किसी ने अपमान किया है या और कोई कारण हो, तो कहो, मैं वही कार्य करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो।"
राजकुमार ने अपने पिता की बातों को सुनकर कहा, "आपकी कृपा से किसी बात का दुःख नहीं है, किसी ने मेरा अपमान भी नहीं किया है। परंतु मैं उस लड़की से विवाह करना चाहता हूँ जो सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी।"
यह सुनकर राजा आघ्चर्य में पड़ गए और बोले, "हे बेटा! इस तरह की कन्या का पता तुम ही लगाओ, मैं उसके साथ तुम्हारा विवाह अवश्य करवा दूँगा।" राजकुमार ने उस लड़की के घर का पता बतलाया। तब मंत्री उस लड़की के घर गए और ब्राह्मण देवता को सभी हाल बतलाया।
ब्राह्मण देवता राजकुमार के साथ अपनी कन्या का विवाह करने को तैयार हो गए, और विधिविधान के अनुसार ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया। कन्या के घर से जाते ही पहले की भांति ब्राह्मण देवता के घर में गरीबी का निवास हो गया। अब भोजन के लिए भी मुश्किल से कुछ मिलता था।
एक दिन दुःखी होकर ब्राह्मण देवता अपनी पुत्री के पास गए। बेटी ने पिता की दुःखी अवस्था को देखा और उसकी माघ का हाल पूछा। तब ब्राह्मण ने सभी हाल कहा। कन्या ने बहुत सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया। इस तरह ब्राह्मण का कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत हुआ।
कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के पास गए और बोले, "लिवा लाओ, मैं उसे विधि बता दूँगा, जिससे गरीबी दूर हो जाएगी।" वह ब्राह्मण देवता अपनी पत्नी को साथ लेकर पहुंचे, तो अपनी माघ से बोले, "हे माघ, तुम प्रातःकाल प्रथम स्नान आदि करके विष्णु भगवान का पूजन किया करो, तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी।"
परंतु उसकी माघ ने एक भी बात नहीं मानी और प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री के बच्चों की जूठन खा ली। इससे उसकी पुत्री को भी बहुत गुस्सा आया और एक रात को कोठरी से सभी सामान को निकाल दिया और अपनी माघ को उसमें बंद कर दिया। प्रातःकाल उसे निकाला, स्नान आदि कराके पाठ करवाया।
फिर उसकी माघ की बुद्धि ठीक हो गई और उसने प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत रखना शुरू कर दिया। इस व्रत के प्रभाव से उसकी माघ और पिता बहुत ही धनवान और पुत्रवान हो गए। बृहस्पति देव के प्रभाव से उन्होंने इस लोक के सुख भोगे और अंततः स्वर्ग को प्राप्त हुए।
बोलो बृहस्पति की जय।
विष्णु भगवान की जय।
इति
आरती बृहस्पति देव की
ओम् जय बृहस्पति देवा जय बृहस्पति देवा।
छिन-छिन भोग लगाओ, फल मेवा।।
तुम पूर्ण परमात्मा तुम अन्तर्यामी।
जगत पिता जगदीश्वर तुम सबके स्वामी।।
चरणामृत निज निर्मल सब पातक हर्ता।
सकल मनोरथ दायक कृपा करो भर्ता।।
तन मन धन अर्पणकर जो शरण पड़े।
प्रभु प्रकट तब होकर आकर द्वार खड़े।।
दीन दयाल दयानिधि भक्तन हितकारी।
पाप दोष सब हर्ता भव बन्धन हारी।।
सकल मनोरथ दायक सब संघय तारो।
विषय विकार मिटाओ सन्तन सुखकारी।।
जो कोई आरती तेरी प्रेम सहित गावे।
जेष्टानन्द बन्द सो सो निश्चय पावे।।
सब बोलो विष्णु भगवान की जय।
बोलो बृहस्पति देव भगवान की जय।।
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