Hindi Typing Test - अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा
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अनन्त व्रत कथा विधि व्रत वाले दिन सूर्योदय से पहले ब्रमुहूर्त में उठकर अपने नित्य कर्म से निवृत्त होकर विद्वान आचार्य को बुलाकर भगवान का एकाग्रचिघ से पूजन करना चाहिए। श्रद्धापूर्वक पंचामृत से स्नान कराकर भगवान को नैवेद्य अर्पण करें तथा समस्त पूजन की सामग्रियों से यथाविधि पूजन करें। बाद में भगवान का प्रसाद पावें। व्रत के दिन जागरण करना अनिवार्य है। इस प्रकार नियम पूर्वक व्रत कथा पूजन करने से सर्व सुख आरोग्यता समृद्धि वंघ धनधान्य सन्तान वैभव तथा विजय की प्राप्ति होती है। अन्त में सायुज्य मोक्ष प्राप्त होती है।
अथ कथा प्रारम्भ श्री सूत जी बोले नैमिषारण्य में पूर्व समय में गंगातट पर महाराज युधिष्ठिर ने जरासंध के वध के लिए राज सूय यज्ञ किया। राजा युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण भीमसेन और अर्जुन के साथ यज्ञशाला में अनेकों प्रकार के रत्नों से सुघोभित मोती के समान कांति वाली इन्द्र सभा के सदृघ शोभायमान हो रही थी उसमें यज्ञ के निमिघ सभी राजाओं को बुलाया। उसी समय गांधारी का पुत्र दुर्योधन उस यज्ञशाला में आया। दुर्योधन वहाघ् सूखे आंगन को जल से भरा देख शस्त्रों को उठाकर धीरेधीरे चला। उसे देख द्रोपदी आदि स्त्रियां हंसी और आगे जल के स्थान को सूखा समझकर दुर्योधन चलते हुए जल में गिरा।
उस समय सम्पूर्ण तपस्वीराज तथा द्रोपदी आदि स्त्रियों ने दुर्योधन का उपहास किया। यह देख दुर्योधन अत्यन्त घेधित हुआ और अपने मामा के साथ हस्तिनापुर को चला गया। उस समय शकुनि ने दुर्योधन से मधुर वचन में कहा हे राजन्! आप अपने घेध को अपने कार्य के लिए छोड़ दें क्योंकि जुआ खेलने से आप सारे राज्य को प्राप्त कर सकते है। हे राजन्! यज्ञ मण्डप में चलने के लिए उठिए ऐसा ही होघ् कहकर दुर्योधन यज्ञमण्डप में आये। इतने में सभी यज्ञ समाप्त कर अपनेअपने देघ को चले गये।
इसके पश्चात् राजा दुर्योधन ने हस्तिनापुर में आकर युधिष्ठिर भीम अर्जुन आदि पांडुपुत्रोें को बुलाकर जुआ खेलना आरंभ किया। कपट से उनके राज्य को स्वयं हड़प लिया और निरापराधी पांडवों को जीतकर वन में भेज दिया। अब पांडव वनवन घूमने लगे। यह समाचार सुनकर भगवान श्रीकृष्ण पांडवो को देखने की इच्छा करके उनके पास वन में पहुघ्चे। श्री सूत जी बोलेहे ऋषियों! वन में रहने पर दुःख से दुर्बल पांडव जगदीश्वर कृष्ण को देख उन्हें प्रणाम करने लगे। युधिष्ठिर बोले हे जगदीश्वर ! परिवार सहित मैं बहुत दुःखी हूघ्। इस दुःख के सागर से मुक्ति का उपाय बतलाइये।
हे भगवान! किस देवता की पूजा से हम अपना राज्य प्राप्त कर सकते हैं अथवा किस व्रत को करूं जिससे आपके प्रसाद से मेरा हित हो श्री कृष्ण बोलेहे युधिष्ठिर! श्री अनन्त भगवान का पूजन व्रत पुरूषो तथा स्त्रियों को करना चाहिए इससे सभी मनोरथों के पूर्ण होने के साथ सब पाप नाश हो जाते है। तब युधिष्ठिर बोलेहे वासुदेव! आपके कहे हुए अनन्त भगवान कौन है क्या शेषनाग है क्या तक्षक सर्प है अथवा परमात्मा को अनन्त कहते है हे केघव! यह अनन्त कौन है कृपा कर हमें यथार्थ कहिये।
श्रीकृष्ण बोले अनन्त रूप् मेरी ही है सूर्योदि ग्रह और यह आत्मा जो कहे जाते हैं और पलविपल दिनरात पक्ष मास ऋतु वर्ष युग यह सब काल कहे जाते हैं जो काल कहे जाते हैं वही अनन्त कहा जाता है और दुष्टों का नाश तथा साधुओं की रक्षा करने को वासुदेव के वंघ लिया है। आदि मध्य अन्त कृष्ण विष्णु हरि शिव बैकुण्ठ सूर्य चन्द्र और सर्वव्यापी ईश्वर तथा सृिष्ट जो नाश करने वाले विश्वरूप महाकाल इत्यादि रूपों को मैंने अर्जुन के ज्ञान के लिए दिखलाया था। योगियों के ध्यान करने योग्य और संसार रूप अनन्त जिसमें चतुर्दघ इन्द्र अष्टावसु बारह सूर्य एकादघ रूद्र और नारद आदि सात ऋषि तथा समुद्र विध्ंयाचल आदि पर्वत गंगा आदि नदी तथा वृक्ष और नक्षत्र एवं दसों दिशा भूमि पाताल भूलोक भुवः इत्यादि लोक है।
हे युधिष्ठिर! यह सब मैं ही हूं इसमें कोई संदेह नहीं है।
युधिष्ठिर बोले हे विद्वद्वर ! अब आप अनन्त व्रत का महात्म्य और विधि कहिये तथा अनन्त व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्राणियों को क्या पुण्य मिलता है और उसका फल क्या मिलता है सो कहिये। मैं यह जानना चाहता हूघ्।
पूर्वकाल में यह अनन्त व्रत किसने किया और मृत्युलोक में किसने प्रकाशित किया यह सब विस्तार से कहिये तब श्रीकृष्ण बोले हे युधिष्ठिर ! पहले सतयुग में एक सुमन्त नाम का ब्राह्मन था। उसने वशिष्ठ गोत्र में उत्पघ् भृगु की सुन्दर कन्या दीक्षा का वेदोक्त विधि से विवाह किया। थोड़ा समय बीतने पर उसके गर्भ से उन्नत लक्षणों वाली कन्या उत्पन्न हुई। वह सुघीला शीला नाम वाली कन्या पिता के घर बढ़ने लगी।
उसी समय शीला की माता ज्वर से पीड़ित हो पवित्र नदी के जल में गिरकर मर गई। उसके पश्चात् सुमन्त ने ब्राह्मन की कन्या से जिसका नाम कर्कशा था विधि पूर्वक विवाह किया। दुष्ट स्वभाव कर्कशा नित्य झगड़ा करने वाली थी। उसकी सौतेली शीला नाम की कन्या अपने पिता के घर में भीत पर और खम्बा पर तथा देहली पर चित्रकला में तोरण आदि में चतुर थी। नीले पीले सफेद काले इत्यादि रंगीन चित्र विचित्र से सतिये शंख कमल बारम्बार बनाया करती थी।
इस प्रकार बहुत काल व्यतीत हुआ और इस प्रकार वह कौमार्य अवस्था वाली शीला को देख सुमन्त ने चिन्ता की कि यह कन्या किसको दूघ् और विचार से दुःखी हुआ। उसी समय वेद के जानने वालों मे श्रेष्ठ और स्त्री इच्छा करने वाला कांतियुक्त मुनियों मे श्रेष्ठ कौंडिल्य ऋषि वहां आये और बोले हे सुमन्त! तुम्हारी सुन्दर कन्या शीला को मैं वरण करना चाहता हूघ्। तब सुमन्त ने शुभ दिन में श्रेष्ठ मुनि एक धर्म पुरूष कौंडिल्य नामक ऋषि से अपनी कन्या का विवाह कर दिया।
गृहस्थसूत्र की कही विधि से विवाह किया। उस समय मांगलिक कार्य किए गए तथा स्त्रियो ने मंगलगान किया। ब्राह्मनों ने स्वस्तिवाचन तथा बन्दीजनों ने तुम्हारी जय होघ् घोष किया। यह विवाह सम्पन्न होने पर अपनी स्त्री कर्कशा से सुमन्त बोलेहे प्रिये! दामाद को संतोष के लिए कुछ दहेज देना उचित है। ऐसे वचन सुनकर कर्कशा ने नाराज हो अपने घर के सम्पूर्ण पदार्थो को एकत्र कर उन्हें पेटी में बन्द कर अपने पिता के घर जाने को कह और भोजन से बचे हुए पदार्थ को मार्ग में भोजन के लिए रख लिये।
सुमन्त से बोली कि घर में धनादि कुछ भी नहीं है देख लो। हे युधिष्ठिर! ऐसे वचनों को सुन वह महा दुःखी हुआ। विवाह के पश्चात् कौंडिल्य अपनी पत्नी शीला को रथ में बिठाकर वहां से धीरेधीरे चले। मार्ग में पुण्यरूपा यमुना नदी को देखकर उसके किनारे रथ खड़ा कर नित्य कर्म करने चले दिए। दोपहर को भोजन के समय उसी यमुनातट पर उतर शीला ने लाल वस्त्र पहने हुए बहुतसी स्त्रियों को देखा जो अनन्त चतुर्दशी में भक्तिपूर्वक जनार्दन भगवान की पूजा कर रही थीं।
उन स्त्रियों के समीप जाकर धीरे से पूछा हे भार्या! कृपाकर आप मुझसे कहो कि यह आप किसका व्रत कर रही हो और इस व्रत का क्या नाम है शीलवती के ऐसे वचन सुनकर सम्पूर्ण स्त्रियां बोलीं हे शीला ! इसका नाम अनन्त व्रत है। इस व्रत में अनन्त देव की पूजा की जाती है। यह वचन सुन शीला बोली मैं भी इस उघम व्रत को करू अनन्त देव की पूजा की जाती है। यह वचन सुनकर शीला बोलीमैं भी इस उघम व्रत को करूंगी और स्त्रियो से पूछा इस व्रत का क्या विधान है और इसमें क्या दानादि होगा तथा किस देवता की पूजा होती है।
उसके वचन सुनकर सब स्त्रियां बोली हे शीला ! अच्छे अन्न का एक सेर मालपुआ बनवावें जिसमें से आधा भाग ब्राह्मन को दें आधा आप भोजन करें और पणता को त्यागकर शक्तिनुसार ब्राह्मन को दक्षिणा दें। किसी नदी के किनारे अनन्त का पूजन करें। कुशा का शेषनाग बांस की टोकरी में स्थापित करें। फिर शेषनाग का आवाहन प्राणप्रतिष्ठा करके स्नान करावें और वेदी पर चंदन पुष्प धूप दीप और बहुत प्रकार के नैवेद्य अनेकों प्रकार के पकवानों से उनकी पूजा करें।
उस शेषनाग के आगे कुंकुम से रंगकर उसमें चौदह गांठ लगाकर उस डोरे का पूजन कर पुरूष अपने दांये हाथ में और स्त्री अपने बायें हाथ में बांधते है। बांधते समय यह मन्त्र पढ़े। हे वासुदेव! इस संसार रूपी सागर में डूबते हुए मेरा उद्वार करें ऐसा श्री अनन्त सूत्र है उसके लिये मेरा नमस्कार है। तदन्तर सूत्र को हाथ में बाघ्धकर अनन्त की इस कथा को सुनें और संसार रूपी नारायण अनन्त का ध्यान करें। हे शीला इस प्रकार हमने तुमसे इस व्रत का विधान कहा।
श्रीकृष्ण बोले हे युधिष्ठिर ! उस शीला ने स्त्रियों के ऐसे वचन सुन अति आनन्द को प्राप्त हो हाथ में चौदह ग्रन्थि युक्त डोरा बाघ्धकर इस व्रत को किया। कार्य के अर्थ जो भोजन दिया गया था आधा ब्राह्मन को खिलाया शेष आप दोनों ने भोजन कर आनन्द से पति के साथ बैलगाड़ी में बैठ घर गई। उस समय से शीला को व्रत का प्रभाव मालूम हुआ। अब अनन्त व्रत करने से गौ धन और लक्ष्मी से उसका घर परिपूर्ण हो गया।
अतिथि के सत्कार में शीला सदा लगी रहती थी। वह माणिक्य स्वर्ण मोंतियों के हारों से सुसज्जित हो गई। देवताओं की स्त्रियों के समान धन पुत्रादि से युक्त हो सावित्री के समान पतिव्रता हो पति के साथ आनन्द से रहने लगी। किसी समय उसके पति ने शीला के हाथ में अनन्त को डोरा बंधा देखा और पूछा हे शीला! इस डोरे को क्यों धारण किया है शीला बोलीहे स्वामी! जिसके प्रसाद से मनुष्य इस लोक में धनधान्यादि संपदाओं को पाते है उसी अनन्त के डोरे को मैनें धारण किया है।
शीला के ये वचन सुनकर उसके पति कौंडिल्य ऋषि ने लक्ष्मी के मद से अनन्त के डोरे को तोड़ डाला और बोला यह अनन्त कौन है उस मूढ़ ने डोरे को जलती हुई आग में डाल दिया। तब हायहाय कर दौड़ती हुई शीला ने अनन्तसूत्र को अग्नि से निकालकर दूध में डाल दिया। इन कर्मो के फल से कौंडिल्य का सब ऐश्वर्य नष्ट हो गया। चोर उसकी गौर चुरा ले गए। आग से उसका घर जल गया। जोजो पदार्थ जिस प्रकार से आया था उसी प्रकार से चला गया।
अपने स्वजनों सेे कलह तथा बंधुओं से नित्यप्रति झगड़ा होने लगा। उसी अनन्त के डोरे को तोड़ने से घर में दरिद्रता आ गई। भगवान बोले हे युधिष्ठिर ! उससे कोई मनुष्य नहीं बोलता भी न था पीड़ित शरीर से अत्यन्त दुःखी होकर वह बोलाहे शीले! मुझे अकस्मात् शोक होने का क्या कारण है मेरा सब धन नष्ट हो गया हो गया कोई मुझसे बात नहीं करता और देह में नित्यप्रति पीड़ा होती है।
हे शीले! मुझसे क्या अपराध हुआ है और क्या करने से मेरा कल्याण हो सकता है पति के ऐसे वचन सुनकर शीला बोली हे स्वामी! आपने जो अनन्त डोरे का आक्षेप किया उसी के पाप का यह फल है। हे महाभाग! भविष्य मे द्रव्य आदि सब होगें परन्तु उसके लिए उपाय करो। शीला के वचन सुनकर वह अति दुःखी हो तप करने का संकल्प ले वन में जा आयुलक्षित करके तप का विचार करने लगा कि ऐसे जगदीश्वर अनन्त का दर्घन जिसकी प्रसन्नता से द्रव्यादि पदार्थ मिलते है और उसके हस्तक्षेप से सब नष्ट हो जाते है कहाघ् पर मिलेगें।
धनादि पदार्थ होने के सुख से तथा न होने के दुःख से यह विचार करता हुआ वह निर्जन वन में घूमने लगा। वहां उसने फलों से सम्पन्न एक वृक्ष देखा जिसमें कीड़े पड़ गये। यह देख कौंडिल्य ने वृक्ष से पूछा तैने किसी स्थान में अनन्त देव को देखा है हे सज्जन ! देखा है तो मुझे बताओ क्योंकि उन्हें न देखने से मेरे चिघ में बड़ा दुःख हो रहा है।
यह सुन वृक्ष ने कहा हे कौंडिल्य मैंने अनन्त को कहीं नहीं देखा। ऐसा उत्तर सुनकर कौंडिल्य ऋषि महा दुःखी होकर आगे को चले गये। श्रीकृष्ण जी बोलेहे युधिष्ठिर ! अनन्त के दर्घन की लालसा करते हुए ऋषि ने वन में इधरउधर घूमती हुई बछड़ो सहित गौओं को देखकर उसने गाय से पूछा हे धनु! तूने अनन्त को देखा होतो बता यह सुन गाय ने कहाहे द्विज ! मैं अनन्त को नहीं जानती।
आगे चलकर एक बैल को देखा ऋषि ने उससे भी पूछा हे गौ स्वामिन् तूने अनन्त को देखा बैल बोला मैने अनन्त को नहीं देखा है। तब कौंडिल्य ऋषि ने आगे चलकर दो पुष्कर्णियों से को देखा जिनके कल्लोल से परस्पर लहरें मिल रही हैं और कमल कुमुदिनी बहुत प्रकार से शोभा दे रही है तथा भ्रमर हंस चकवा तथा सारसबगुला जाति के पक्षी ट्टीड़ा कर रहे थे।
उस कौंडिल्य ने पुष्कर्णियों से पूछा तुम दोनो ने अनन्त को देखा है यह सुन पुष्कर्णियों ने उत्तर दिया हे द्विज हमनें अनन्त को नहीं देखा है। उनसे भी संतोष जनक उत्तर न मिलने पर उसकी आशा नष्ट हो जाने से वह वन में बैठ गया।
हे युधिष्ठिर ! कौंडिल्य जीवन की आशा छोड़कर विह्ल हो गर्म स्वांस छोडता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। थोडे समय में सावधान होने पर हे अनन्त! ऐसा कहते हुए कौंडिल्य ने उठकर संकल्प किया कि प्राणो को छोड़ दूंगा।
हे युधिष्ठिर! तब वृक्ष पर मरने के लिए फांसी डाली। तभी अनन्त जी प्रत्यक्ष होकर आ गये। ब्राह्मन का रूप धारण किये अनन्त ने कहा हे द्विज ! इधर आओ और उसका दाहिना हाथ पकड़कर पर्वत की गुफा में चले गये। वहां सुन्दर स्त्रीपुरूषों से युघ् उस ऋषि को अपनी पुरी को दिखाया।
वहां पर एक दिव्य सिंहासन पर बैठे और शंख, गदा, पंख और गरूड़ सहित विश्वरूप् अपनी विभूतियों के भेदों से अधिक तेज और कौस्तुभ मणि सहित वनमाला धारण किये हुए थे। उन देवताओं के देव जो किसी से न पराजित होने वाले हैं, उन विश्वरूप् को कौंडिल्य ऋषि देखकर स्तुति करने लगे।
हे पुण्डरीकाक्ष! मैं पापी हूघ् पाप कर्म करने वाला पापात्मा हूघ् मैं पाप से उत्पघ् हूघ् आप मेरी रक्षा करें और मेरे पापो को हरें। हे जगदीश आज मेरा जीवन तथा जन्म दोनों धन्य है। तुम्हारे चरणकमलों पर मेरा मस्तक भ्रमर के समान स्पर्घ कर रहा है।
कौंडिल्य ऋषि के वचन सुनकर अनन्त देव मधुर वाणी से बोले: हे कौंडिल्य! तुम निर्भय होकर अपने मन की बात मुझसे कहो।
तब कौंडिल्य बोले: मैंने अपनी सम्पत्ति के घमंड में आकर अनन्त का डोरा तोड़कर उनकी निन्दा की, जिससे मेरी संपत्ति नष्ट हो गई। स्वजनों से नित्य झगड़ा होता है और मुझसे कोई बात भी नहीं करता। महा दुःखी होकर तुम्हारे दर्शन के लिए आया हूघ्।
अनन्त भगवान की कृपा से दयापूर्वक आपने मुझे दर्शन दिया। मैंने जो पाप किया है, कृपया उसकी शांति का उपाय मुझे बतलाइये।
श्रीकृष्ण बोले: हे युधिष्ठिर! भक्ति से संतुष्ट होकर अनन्त देव क्या न देवें!
अनन्त भगवान बोले: हे कौंडिल्य! विलम्ब मत कर, अपने घर को जा और चतुर्दश वर्ष तक भक्तिपूर्वक अनन्त व्रत कर! तू सब पापों से छूटकर सिद्धि को प्राप्त करेगा, तेरे पुत्र-पौत्र होंगे तथा सुखों का उपभोग करेगा। अन्त समय में मेरा स्मरण होगा और निःसंदेह अमरपद को प्राप्त होगा।
सम्पूर्ण लोगों के उपचार के लिए मैं तुम्हें और भी वर देता हूघ्। सम्पूर्ण विधि से इस व्रत की कथा पढ़ने वाला और शीला के समान इस अनन्त व्रत का पालन करने वाला, इस व्रत के प्रभाव से जल्दी ही सब पापों से छूटकर परमगति को प्राप्त करेगा।
हे कौंडिल्य ! हे कौंडिल्य तू जिस मार्ग से आया है उसी मार्ग से अपने घर को जा।
तब कौंडिल्य बोला, हे स्वामी! मैंने वन में घूमते हुए एक आघ्चर्य देखा, वह आपसे पूछता हूँ। कृपया आप उत्तर दीजिये। वह आम का वृक्ष, गौ, बैल, कमल आदि से शोभायमान पुष्कर्णी, गधा और हाथी। हे देव! यह सब कौन हैं? आप इन सूत्रों का वृतान्त मुझसे कहिये।
तब अनन्त जी बोले, हे कौंडिल्य जी! आम का वृक्ष पूर्वजन्म का विद्वान ब्राह्मण है जो विद्यार्थियों का ज्ञान न देने के कारण वृक्ष हुआ।
वह गौ पृथ्वी है, उसने पूर्वजन्म में बीज चुराया था, और वह बैल धर्म है। धर्म और अधर्म के कारण वे दोनों पुष्कर्णी हुईं हैं। वे पूर्वजन्म में कोई ब्राह्मण जाति की दो भगिनियाँ थीं, जो धर्म करती थीं, परन्तु ब्राह्मणों, अतिथि और दुर्बल को भोजन आदि नहीं दिया था। याचकों को भिक्षा भी नहीं दी थी। इस पाप कर्म से वे परस्पर लहरी और जल एकत्र हुईं।
वह गधा घेध है, वह हाथी मद है, और वृक्ष ब्राह्मण है। मैं अनन्त हूँ, और कंदरा संसार है। इस तरह कहकर अनन्त जी अन्तर्ध्यान हो गए।
यह चरित्र कौंडिल्य ने स्वप्न में देखकर अपने घर लौट आए। श्रीकृष्ण ने कहा, हे युधिष्ठिर! कौंडिल्य ऋषि ने चतुर्दश वर्ष तक अनन्त व्रत किया। भगवान अनन्त के कहे अनुसार सुख भोगकर अंत में अनन्त का स्मरण कर अनन्तलोक को गए।
हे युधिष्ठिर! इसी प्रकार तुम भी कथा सुनो और चतुर्दश वर्ष तक अनन्त व्रत करो। जैसे कौंडिल्य ने अनन्त देव के कहे अनुसार फल प्राप्त किया, वैसे ही तुम भी सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त करोगे। आख्यान सहित व्रत करने से एक ही वर्ष में मनोरथ पूर्ण होकर फल प्राप्त होता है।
हे युधिष्ठिर! यह व्रत मैंने आपको सुनाया। इस व्रत के करने से मनुष्य सब पापों से छूट जाता है, इसमें संदेह नहीं है। जो कथा सुनते हैं, वे पापों से छूटकर अनन्त लोक को प्राप्त करते हैं।
हे कुरूकुलोद्भव! जो कोई शुद्धचित्त वाले मनुष्य इस संसार सागर में सुखपूर्वक विहार करना चाहते हैं, वे त्रिभुवन के स्वामी अनन्त भगवान का पूजन करके दाहिने हाथ में सुंदर अनन्त देव चतुर्दश ग्रन्थि वाला डोरा बांधते हैं।
आरती श्री जगदीश जी
ओम् जय जगदीश हरे स्वामी जय जगदीश हरे। भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे।
ओम् जो ध्यावै फल पावै दुःख विनसे मनका। सुख सम्पशि घर आवे कष्ट मिटै तन का।
ओम् मातपिता तुम मेरे शरण गहू मैं किसकी। तुम बिन और न दूजा आस करू जिसकी।
ओम् तुम पूरन परमात्मा तुम अन्तर्यामी। पारब्रघ परमेश्वर तुम सबके स्वामी।
ओम् तुम करूणा के सागर तुम पालन कर्ता। मैं मूरख खल कामी कृपा करो भर्ता।
ओम् तुम हो एक अगोचर सबके प्राणपती। किस विधि मिलू दयामय! तुमको मैं कुमती।
ओम् दीनबन्धु दुःख हर्ता तुम ठाकुर मेरे। अपने हाथ बढ़ाओ द्वार पड़ा तेरे।
ओम् विषय विकार मिटाओ पाप हरो देवा। श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ संतों की सेवा।
ओम् तन मन धन सब है तेरा स्वामी सब कुछ है तेरा। ओम् तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा।
ओम् श्री जगदीश जी की आरती जो कोई नर गावे। कहत शिवानंद स्वामी सुख सम्पत्ति पावे।
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